एक दिन मैं कहीं बस में यात्रा कर रहा था। अम्बाला से कुरुक्षेत्र की और जा रहा था। उम्र यही कोई २२ साल थी। थोड़ी फुर्ती थी जब बस आई बस स्टॉप पर रुकी तो मैं लपक कर सबसे पहले उसमे चढ़ गया। सामने ही एक सीट खाली थी आराम से जा कर उसपे बैठ गया। सोचा चलो १ घंटे का सफर आराम से बीतेगा।
धीरे धीरे करके और सावरिया भी उसमे चढ़ने लगी। ३ बुजुर्ग भी उस बस में चढ़े पर इन लोगों को कोई सीट नहीं मिली थी। यूँ तो मैं बहुत ही उदार विचारो का था। हमेशा सहायता करने के लिए तैयार रहता था। जब भी कही विश्व विद्यालय स्तर पर संगोष्ठी होती थी तो हमेशा उनमे अपने संस्कारो से लोगो को अवगत करने का मौका नहीं चूकता था। उन बुजुर्गो को देख कर ख्याल आया की मुझे खड़े हो कर अपनी कुर्सी उन्हें दे देनी चाहिए। पर ज्यों ही मैं इस बात पर अमल करने चला की मन से एक आवाज आई "रुक जा तू थका हुआ है"। बात तो सोचने वाली थी। सुबह ही ऐसी एक बस से यात्रा कर के अम्बाला गया था फिर दिन भर काम की भाग दौड़ और थकान हो जाना स्वाभाविक था। तुरंत ठहर गया और अपने फैसले पर पुनर्विचार की युक्ति सुझाई "ठीक है थका हुआ हु पर वो भी तो बुजुर्ग है किसी भी रूप में उनका खड़ा रहना शोभा नहीं देता"। जैसा की सबको विदित है मन कभी भी अपनी इच्छाओं के आगे कोई तर्क नहीं सुनता तुरंत पलट कर एक जवाब दिया "तो क्या तेरे शरीर का तुझे कोई ख्याल नहीं है"। ज्यों ज्यों मन तन के सुख की बात करता जाता शरीर भी उसका गुलाम हुआ जाता था। जैसे आप किसी व्यक्ति की तारीफ कर दो तो वो आपका मुरीद हुआ जाता है वही हाल शरीर का था पर एक भावना जो मन में जीवित थी वो इन तर्कों को कहा समझने वाली थी। आपके मन के दो हिस्से है एक पक्ष में बोलता है तो एक विपक्ष में। उसी तुलना से आप सही रूप से किसी भी निर्णय का निर्धारण करते है। अगर यही दो जीव मन में समाप्त हो जाए तो इंसान की तर्कशक्ति ही समाप्त हो जाए। हालाँकि इन दो चीजों में से किसी भी एक को चुनना सबसे मुश्किल फैसला होता है। दूसरे मन ने चेताया "इसी उम्र की माँ भी है अगर वो भी खड़ी हो कर जातीं तो क्या जाने देता"। बात तो ये भी सही थी, इसमें कुछ संशय न था की माँ जाती साथ तो किसी कीमत पर खड़ा न हो कर जाने देता। चाहे मैं खड़ा हो कर चला जाता पर उन्हें कैसे जाने देता। बुजुर्ग है कहीं धक्का लगे कहीं कुछ। ऊपर से माँ है उनके लिए तो जीवन न्योछावर ये कुर्सी क्या चीज थी। इस प्रश्न के उत्तर पर भी विचार करना निंदनीय था। दूसरा मन फिर बोला "तो ये फर्क कहा से उपजा। जैसे तुम्हारी माँ वैसे ही ये किसी और की माँ है बुज़ुर्ग है धक्का इन्हे भी लग सकता है चोट इन्हे भी लग सकती है। आखिर फिर ये फर्क अपनेपन का क्यों उपजा "मैं निरुत्तर था। यह तो सच्चाई थी की इंसान अपने जीवन में हमेशा अपना स्वार्थ देखता आया था। मुझे नहीं पता था कि जिन चीजों को कह देना इतना आसान था उन चीजों को अमल में लाने के लिए इतनी गहरी तपस्या का सामना करना पड़ता है। वो बाते जिन्हे लोगो को उत्साहित करने के लिए सभा में यूँ ही बोल दिया करता था आज उन सभी बातो का मतलब स्वयं सीखने का दिल कर रहा था। मैं कुर्सी छोड़ के उठ खड़ा हुआ। उन्हें बुला कर बोला आप यहाँ बैठ जाए। मेरे अहंकार को ठेस लगने की सीमा तब पार हो गई जब उन्होंने प्यार से मेरे सर पर हाथ रख कहा जुग जुग जियो बेटा। मेरे घुटनो में जो थोड़ा दर्द था, वो मानो हवा हो गया। मन में मौजूद सारी बुराई समाप्त हो गई। वो भीषण संग्राम जो मन क भीतर चल रहा था समाप्त हो गया। ये भी देखा की त्याग जो लालिमा आपके जीवन में लता है वह अतुलनीय है। कुर्सी की लालच ने तो सारा विश्व ही नचाया हुआ है। उन बुजुर्ग का आशीर्वाद पा कर मन खिल उठा था। शायद अब थकान भी ख़त्म हो गई थी और शायद इंसानी अवधारणाओं से एक छोटा साक्षात्कार भी हुआ था। मेरे विचार जिन्होंने मुझे कुरेदा कुछ लिखने को, जो कलम के माध्यम से व्यक्त हो सकीं वे सभी रचनाएँ ही हैं : स्याहीरचना
Thursday, 24 September 2015
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